कुछ चीजें विरासत में ही किसको यों मिल जाती है मानो उनकी फितरत में ही लिखा हो की ये चीज उन्हें मिलनी ही है। पिछले कुछ दिनों से जिस तरह का माहौल मगध विश्वविद्यालय के प्रांगण में देखने को मिल रहा है उससे तो यही लगता है कि यह कोई शैक्षणिक संस्थान न होकर किसी तानाशाह का उद्योग है जिसके मजदूर अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर बैठे हुए हैं। इतनी लंबी हड़ताल मैने तो अपने विद्यार्थी जीवन में पहले कभी नही देखी है, और विश्विद्यालय के कुलपति धरना दे रहे कर्मचारियों से बात तक नही करना चाहता है, सिर्फ तुगलकी फरमान सुनाता है।अपने दायित्व से भाग कर स्थिति को अलग ही दिशा में कुलपति द्वारा निर्धारित किया जा रहा है। पता नही अगर ऐसा ही चला तो इस सत्र में नामांकन ले रहे छात्रों का भविष्य किस अंधकार भरे रास्ते से होकर जायेगा।
अब आते हैं हड़ताल के तकनीकी पहलू पर तो यह बहुत हदों तक जायज़ लगता है। कई सालों से प्रोन्नति रुकी हुई है इस विश्वविद्यालय में, समय पर वेतन नही मिलता। संविदा कर्मियों और दैनिक मजदूरी करने वालो को मासिक मजदूरी भी नही मिलती है। एक उदाहरण के रूप में, मैं अपने छात्रावास के गार्ड की वेदना बताना चाहता हूँ। जिसे तीन माह से तनख्वाह नही मिली है, वो भी मात्र छः हज़ार रुपये मासिक! वो भी बारह घंटे के कठिन परिश्रम के बाद। न ही समय और न ही न्यूनतम मजदूरी का कोई पालन एक शैक्षणिक संस्थान पे कई सवाल उठाता है।
अब बात छात्रों के भविष्य की तो मेरे खयाल से जो विश्वविद्यालय ही जीते जी खंडहर बनने की राह पर हो, वो क्या किसी को उज्वल भविष्य का आश्वासन दे सकता है। न तो सत्र समय पर चलता है न ही वर्ग का संचालन होता है। एक उदाहरण के रुप मे हम तत्कालीन घटना को लेते है। जहां सभी विभाग बंद है पर राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष अकेल विभाग आते हैं, विभाग खुले न खुले छात्रों को पढ़ा कर ही लौटते हैं। और में खुलम खुला कहता हूं, कर्मचारियों के आंड़ में बाकी शिक्षक भी छुट्टियों का लुत्फ उठा रहे हैं, वो किस दृष्टिकोण से शिक्षक कहे जा सकते हैं या नहीं ये मैं छात्रों पे ही छोड़ना चाहता हूँ ।
अब अंत मे यही कहना चाहता हूं बहुत अफसोस होता है और आत्मग्लानि भी की मैं इसी विश्वविद्यालय का छात्र हूँ!
By a University Student